गुरुमुख से प्रवाहित हो रही ज्ञानगंगा में श्रद्धालु लगा रहे गोते
कालूयशोविलास आख्यानमाला से जनता हो रही लाभान्वित
मुंबई। भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि जो नारकीय जीव पाप किए हैं, कर रहे हैं और आगे भी करेंगे वह दुःख है और कर्म की निर्जरा सुख है ? उत्तर दिया गया कि हां, जो पाप कर्म किए हैं, कर रहे हैं और आगे करेंगे वह दुःख और कर्मों की निर्जरा सुख है। जीव जो भी पाप किया है, कर रहा है और आगे करेगा, वही पापकर्म उसके लिए दुःख होता है और जब पाप कर्मों की निर्जरा हो जाती है, जब पाप कर्म क्षीण हो जाते हैं तो वह सुख की प्राप्ति कर सकता है। संवेदन के आधार पर सुख और दुःख को परिभाषित किया जाए तो कहा जा सकता है कि अनुकूल वेदनीय कर्मों का उदय सुख और प्रतिकूल वेदनीय कर्म दुःख है। इन्द्रियों से ग्रहण किए जाने वाला सुख बाह्य सुख होता है। जैसे कोई अच्छे वातानुकुलित घर में है, मनोज्ञ पदार्थ प्राप्त हो रहे हैं तो वह सुखी हो सकता है और यदि उसे वैसा स्थान और मनोज्ञ पदार्थों की प्राप्ति न हो तो वह दुःखी हो सकता है। यह स्थिति बाह्य सुख-दुःख की होती है।
शास्त्रकार ने बताया कि जो पाप कर्म हैं, वे दुःख के मूल कारण है। पाप कर्म को ही अध्यात्म जगत में दुःख कहा गया है। पाप कर्म के कारण ही दुःख होता है। तपस्या वह कारण है, जिसके माध्यम से कर्म निर्जरा रूपी कार्य होता है। तपस्या, स्वाध्याय, सेवा आदि से कर्मों की निर्जरा होती है। आदमी की आत्मा स्वयं में सुख होती है। आत्मा को न जानने वाला और उससे दूर रहने वाला आदमी बाह्य जगत में इन्द्रिय सुख को खोजता रहता है। आदमी को तपस्या, साधना, स्वाध्याय और सेवा के द्वारा कर्मों की निर्जरा कर वास्तविक सुख की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। बाहरी जगत का सुख अशाश्वत होता है। पारमार्थिक सुख की प्राप्ति के परमार्थ और अध्यात्म की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। तपस्या, धर्म, साधना, सेवा से कर्म क्षीण होते हैं तो आत्मिक सुख की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए आदमी का मूल लक्ष्य कर्मों को क्षीण करने का होना चाहिए। बाह्य सुख तो पुण्य से प्राप्त होते हैं। पुण्य समाप्त होते ही बाह्य सुख समाप्त हो जाते हैं, किन्तु निर्जरा के माध्यम से प्राप्त सुख शाश्वत सुख होता है। इसलिए आदमी को अपने कर्मों को क्षीण करने का प्रयास करना चाहिए।
यह चतुर्मास का समय है। इसका लाभ उठाते हुए इस दौरान धर्म, ध्यान, साधना, स्वाध्याय, तपस्या और सेवा के द्वारा आध्यात्मिक लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। उक्त आत्मिक सुख प्राप्ति की प्रेरणा जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अध्यात्मवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शुक्रवार को नंदनवन परिसर में बने तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान कीं। आचार्यश्री ने आत्मिक सुख की प्रेरणा प्रदान करने के उपरान्त उपस्थित श्रद्धालुओं को कालूयशोविलास का भी सरसशैली में आख्यान का रसपान कराया। समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने आचार्यश्री के दर्शन के उपरान्त अपने हर्षित भावनाओं को अभिव्यक्ति दी।