प्रायश्चित्त से निर्मल रह सकती है संयम की चद्दर: राष्ट्रसंत आचार्यश्री महाश्रमण

नन्दनवन में बाहर सावन की झड़ी तो प्रवचन पण्डाल में महातपस्वी महाश्रमण ने लगाई ज्ञान की लड़ी

मुंबई। अड़सठ वर्षों के बाद भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई को सौभाग्य से सवाया चतुर्मास प्राप्त हुआ है। मुम्बई का जन-जन इस सवाये चतुर्मास का सवाया लाभ उठाने को तत्पर हैं। सावन के महीने में रिमझिम गिरती बरसात ने मुम्बईवासियों के बाहरी ताप और उमस का हरण कर लिया है तो दूसरी ओर अध्यात्म जगत के महासूर्य, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की अमृतवाणी की वर्षा से अभिस्नात होकर उन्हें अपने आतंरिक भावात्मक ताप से भी राहत प्राप्त हो रही है। तभी तो लगातार हो रही बरसात के बाद भी प्रतिदिन अपने आराध्य की अमृतवर्षा से ओतप्रोत होने के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित हो रहे हैं। आचार्यश्री भी श्रद्धालुओं को सवाया लाभ प्रदान करने के लिए आगमों के माध्यम से जीवनोपयोगी प्रेरणा के साथ-साथ आत्मविभोर बनाने वाले आख्यान भी प्रदान कर रहे हैं।

मंगलवार को बाहर मेघों की अनवरत झड़ी लगी हुई थी तो नन्दनवन में विराजमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के ग्यारहवें अनुशास्ता की मंगल सन्निधि में तीर्थंकर समवसरण में ज्ञानवर्षा की लड़ी लगी हुई थी। महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को भगवती सूत्र के माध्यम से पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि यदि कोई साधु/साध्वी गोचरी-पानी के दौरान गलती से कुछ अकल्पनीय हो गया। उस दौरान उसने मन में विचार कर लिया कि वह ठिकाणे पहुंचकर उस पाप का प्रायश्चित्त अथवा आलोयणा स्वीकार कर लूंगा, किन्तु रास्ते में ही परिस्थिति ऐसी बन गई अथवा देह का ही परित्याग हो गया तो ऐसी स्थिति में वह आराधक होगा अथवा विराधक। भगवान महावीर ने इसका समाधान प्रदान करते हुए कहा कि यदि साधु की भावना शुद्ध थी और उसके मन में अलोयणा/प्रायश्चित्त की भावना थी और वह परिस्थितिवश उसे स्वीकार नहीं कर पाया अथवा देवलोक हो गया बिना आलोयण लिए तो भी वह आराधक ही होगा, वह विराधक नहीं हो सकता। 

जिस तरह आदमी अपने वस्त्रों को साफ और स्वच्छ रखने के लिए साबुन और पानी का उपयोग करता है, उसी प्रकार संयम रूपी चद्दर पर यदि कोई दाग-धब्बा लग भी जाता है तो साधु लोग उसे आलोयणा/प्रायश्चित्त के द्वारा अमल-धवल बनाए रखते हैं। आलोयणा के लिए उसके भीतर ऋजुता होनी चाहिए, बिल्कुल बच्चे की तरह। जिस तरह एक बालक अपनी समस्त बातें अपने मां-बाप को बता देते हैं, उसी सरल मन की भांति साधु-साध्वियों को अपनी गलती अपने आलोयणा प्रदाता को बता देनी चाहिए ताकि आलोयणा अच्छी हो सके और संयम रूपी चद्दर निर्मल रह सके। डॉक्टर से बीमारी और अपने आलोयणा प्रदाता से कर्म नहीं छिपाना चाहिए। जहां छिपाने वाली बात हो जाती है, वहां आलोयणा अथवा उपचार सही नहीं हो सकता। आजीवन आराधक बने रहने के लिए सरलमना अपने अग्रगण्य अथवा गुरु से अलोयणा लेने का प्रयास करना चाहिए और आलोयणा लेकर उसे पूर्ण भी किया जाता है, तभी वह प्रायश्चित्त पूर्ण हो सकता है। आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त सरसशैली में ‘कालूयशोविलास’ की आख्यानमाला को आगे बढ़ाया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने भी उपस्थित श्रद्धालुओं को उद्बोधित किया। आचार्यश्री ने समुपस्थित श्रद्धालुओं को उनकी धारणा के अनुसार तपस्या का प्रत्याख्यान कराया।

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